Tuesday, 26 January 2016

जलते हुए दीए को बुझाया तो मत करो

जलते हुए दीए को बुझाया तो मत करो

माना तुम हवाऐं हो,
तुम्हे बढने की आदत है पर
जलते हुए दीए को बुझाया तो मत करो
आग थोङी सी ही सही
पर है कहीं-कहीं
उस आग की गरमी को दबाया तो मत करो ।।

विश्व विशाल है,
गुणों का भण्डार है
सबकी अपनी समझ हैं, अपनी पहचान हैं
माना उन सब में हम बहुत छोटे है
लघु-अस्तिव लिए मुर्छित-राही हैं
एक तराशक की तलाश में भटक रहें हैं

तराशक ना सही तो
कम से कम विनाशक बनो
जलते हुए दीए को बुझाया तो मत करो ।।

संकुचित वाटिका के विरान कंजकली है
सूर्योदय की चाह लिए बैठे हैं
जब आखें खुले तो चाहते है
जंजीरो से मुक्त हो
नये सुनेहरे अंबर से
विश्व को प्रकाश दे
काटों से निकलकर,
समाज से जीत कर फूल कर हार दें

अंधेरे की गुमनामी में
खामोशी से उखाङा करो
जलते हुए दीये को बुझाया तो मत करो ।।

छोटे से आंगन के नाजुक दीये हैं
अपनी सूक्ष्म बाती में थोङी सी जलन है
हमे हवाओं से लङना नहीं आता पर
सम्मान में शिश झुक जाता हैं
शायद भविष्य के भयावह मसाल हैं
जिसे कोई हवा मिटाता नही,
और बढाता है
छेङो नहीं आग लग सकती है,
पूरे संसार में

स्नेह के बोल नही तो
काटों की चादर पर ढकेलो
जलते हुए दीए को बुझाया तो मत करो ।।

आकार नहीं पर आग है,
उस जलन को कमजोर मत समझो
जलते हुए दीए को बुझाया तो मत करो ।।।

                             -अमित गुप्ता
                            लखनऊ(उत्तर प्रदेश)


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