Thursday 14 July 2016

Do Lafj : A Hindi Poetry Story







यूपी: अति पिछड़ा वोटर बनाएंगे सरकार, सरकार का क्या दायित्व!



यूपी: ति पिछड़ा वोटर बनाएंगे सरकार, सरकार का क्या दायित्व!

यूपी की सत्ता किसके हाथों में रहेगी, इसमें अति पिछड़ा वर्ग के वोटरों का खासा महत्व है। और शायद इस बात को राजनीतिक पार्टियों से बेहतर कोई और नहीं समझ सकता। वैसे तो राज्य में सभी राजनीतिक पार्टियों का अपना वोटबैंक है। लेकिन इस परंपरागत वोट बैंक के साथ जिस पार्टी की ओर अति पिछड़ा का झुकाव होता है, उसका पलड़ा भारी हो जाता है। जातियों और उपजातियों के प्रदेश में करीब 33 प्रतिशत अति पिछड़े वर्ग के वोटर हैं। यही मतदाता हैं जो प्रदेश की सरकार चुनने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। राज्य में बीजेपी, बीएसपी, एसपी, कांग्रेस व अन्य सभी राजनीतिक दलों को अच्छी तरह पता है कि पिछड़ों में अत्यन्त पिछड़े निषाद, मल्लाह, केवट, राजभर, कुम्हार, बिन्द, धीवर, कंहार, गोड़िया, मांझी आदि जातियों की निर्णायक संख्या हैं और इन जातियों का झुकाव जिस दल की ओर होता है सत्ता उसी की होती है।

बीजेपी का समीकरण - हिन्दुत्व, सवर्ण और अति पिछड़ा

राज्य में ब्राह्मण, कायक्थ और क्षत्रिय मिलाकर लगभग 20 फीसदीसवर्णमतदाता हैं। इनका एकबड़ा तबका बीजेपी और कुछ कांग्रेस के वोटर हैं। कुछ हिस्सा हिन्दुत्व की फिलॉस्फी से प्रभावित है। पर यह भी सत्य है कि इनमें लंबेसमय से कांग्रेसको जनसमर्थननहींमिल रहा है, जबकि इस वर्गकालगभग 12 से15 फीसदीहिस्साबीजेपी का वोट बैंक रहा है। अति पिछड़ा वर्ग के 33 फीसदी में से 10-12 फीसदी भी मिलें और हिन्दुत्व के मुद्दे पर भी अगर बीजेपी के पक्ष में 10-12 फीसदी वोटों का ध्रुवीकरण होता है, तो पार्टी के पक्ष में कुल करीब 32-35 फीसदी मतदान पार्टी के लिए बड़ी कामयाबी होगी। गौरतलब है कि बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य भीओबीसी सेआतेहैं। ऐसे में वह 33 फीसदी के साथ सबसे बड़े वोटर समूह में से यदि 10-12 फीसदी वोट दिलाने में सफल हुए तो बीजेपी के लिए प्रदेश में यह सुखद स्थिति होगी। और इस स्थिति पर कब्जा दूसरी पार्टी कर ले गई तो भाजपा के हाथ से यूपी खिसक सकती है।

बसपा का परंपरागत वोटबैंक

भाजपा के लिए मुश्किल इसलिए है क्योंकि बसपा शासन का लंबे समय तक बने रहना केवल पिछड़ा वर्ग का साथ होना ही एकमात्र कारण था। उत्तर प्रदेश में करीब 24प्रतिशत दलित हैं,जिनमें से18-20फीसदी मतदाताओं पर पार्टी का प्रभाव रहा है18 फीसदीमुसलमानों में से एक तिहाई यानी6 फीसदी भी आ गये तो पार्टी का आंकड़ा 24 फीसद तक पहुंचता है।33 प्रतिशत अति पिछड़ा मेंसे यदि 10-12 फीसदी पार्टी के पक्ष में जाते हैं तो बीएसपी 35प्रतिशत का आंकड़ा पार करजाएगी। इस बात को अच्छी तरह समझते हुएबीएसपी प्रमुख मायावती लगातार दलिोंकेसाथ अति पिछड़ाके कल्याण की बात कर रही हैं। बीएसपी दलित-अति पिछड़ा रैलियों का आयोजन भी कर रही है।

सत्ता में बरकरार रहने के लिएअति पिछड़ा की सपा को खास ज़रूरत

यूपी चुनाव में अल्पसंख्यकों के साथ-साथ समाजवादी पार्टी कोओबीसी और अति पिछड़ा की भी ज़रुरतहै। सीधे शब्दों में कहें तो समाजवादीपार्टी अपनी जीत का आधारही पिछड़ा वर्ग पर समीकरण को सेट करना मान रही है। पार्टी के लिए यादवों का खास महत्व है।54 प्रतिशत वोटर पिछड़े वर्ग से हैं। सपा के रणनीतिकारों की मानें तो 18 प्रतिशत मुसलमानों में से आधे से ज़्यादा सपा समर्थक है। अगर सरकार की नीतियों से जनता संतुष्ट है तो सपा अच्छी खासी स्थिति में हो सकती है। युवा सीएम अखिलेश यादव उम्मीदों के मुताबिक कुछ चमत्कारिक कर पाने में विफल रहे हैं, लेकिन पार्टी का कहना है कि अखिलेश ने बेहतरीन काम किया है और प्रदेश की जनता अब भी उनपर भरोसा करती है।

कांग्रेस के क्या हाल

वहीं, कांग्रेस अपने वोट बैंक से दूर खड़ी नज़र आती है, हालांकि कांग्रेस का वोटर बेस सभी जातियों में बंटा हुआ रहा है। धर्मनिरपेक्षता और असहिष्णुता जैसे मुद्दे उठाकर बीजेपी विरोध में सभी जन समुदाय के मतदाताओं के एक तबके को वह अपनी ओर आकर्षित करती है। बिहार में महागठबंधन की सफलता को देखकर प्रशांत किशोर कीसेवा लेनेकेबाद कांग्रेस की रणनीति भी उपेक्षितजातीय तबकोंऔर छोटी पार्टियों को अपने साथ जोड़ने की है। ऐसेमेंकांग्रेस भीअति पिछड़ा वोटरों को अपने साथ लाने की पूरी कोशिश में है।
एक कड़वे सत्य से रू-ब-रू हों तो सरकारें बदलती हैं, पार्टियां बदलती हैं, सबका समय बदलता है बस कुछ नहीं बदलता तो इन पिछड़ी जातियों का पिछड़ापन। जैसे कोई चुनाव करीब आता है सबको अचानक याद आता है, प्रदेश में कितनी जातियां और जनजातियां हैं? उनके लिए केन्द्र और राज्य से क्या-क्या योजनाएं हैं? किसको कितना फीसदी तक आरक्षण है? और किसको आरक्षण दिया जा सकता है और भी बहुत सारे सवाल चुनाव से 4-6 महीने पहले उठने शुरू होते हैं फिर वो धीरे से एक बड़ी राजनीतिक बहस का मुद्दा बन जाते हैं। जिसके लिए बहस हो रही है उसे भी पता नहीं होता कौन उसके पक्ष में बोल रहा है कौन उसके खिलाफ़। मतदान संपन्न होते-होते सारा हंगामा भी संपन्न हो जाता है। अगले साल यूपी में चुनाव होने हैं तो सारी राजनीतिक पार्टियां अपना गणित बैठाने में जुट गई हैं। सारी बहस होती है मगर कोई भी कभी यह सवाल नहीं करता कि आपने इस जाति विशेष के नाम पर चुनाव लड़ा था, सत्ता में रहकर उसके लिए क्या कर दिया। पिछले चुनावों में जो पिछड़े थे वो आज अति पिछड़ों में शामिल होने की कगार पर हैं, उनकी फ़िक्र नहीं करता कोई। समय की मांग है कि सरकार नए तरीके से अति पिछड़ों को चिन्हित कर, उनकी परिस्थिति का सही आकलन कर कुछ विशेष योजनाएं बनाएं। और मौज़ूदा योजनाओं सहित सभी योजनाओं को सही और पारदर्शी तरीके से लागू करवाए।
कमलेश तिवारी

सरकार और समाज से दूर सूखा सहरिया समाज



सरकार और समाज से दूर सूखा सहरिया समाज

राजस्थान की सीमा से लगे, मध्यप्रदेश श्योपुर जिले में झरेर गाँव है, जहाँ सहरिया आदिवासी समाज रहता है। लगभग 50 कि.मी. में फैले चंबल के जंगलों में एक ऐसा भारत बसता है, जहाँ न पीने को पानी है, न खाने को अन्न और इस भारत का बाशिंदा है सहरिया समाज। तीन साल से यहाँ बारिश नहीं हुई है, फलस्वरुप न ही कोई खेती। ज़मीन सूख कर चट्टान हो गई है, तो बादलों के इंतजार में लोगों की आँखें भी पथरा गई हैं।

 गांव का जलस्तर 400 फीट से नीचे चला गया है, नलों से पानी आना बंद है। लोग पानी की बूंद-बूंद को मोहताज़ हैं। अक्सर टैंकर से पानी भरने के समय आपस में लड़ जाते हैं। और कभी-कभी लड़ाई इतनी बढ जाती है कि जान तक चली जाती है। जो नल चल भी रहें हैं, तो आलम यह है कि एक घंटे में चार लोगों की कड़ी मशक्क़त बाद 5 लीटर पानी भर पाना भी मुश्किल है। जानवरों को पिलाने के लिए पानी का कोई स्रोत्र नहीं है। झरेर निवासी रामवचन बताते हैं कि पिछले तीन सालों में तकरीबन 600 गायें भूख-प्यास से दम तोड चुकी हैं। बकरी जैसे छोटे मवेशियों की अनगिनत मौते हो चुकी हैं।

   जंगल में अब न ही पेड़ बचे हैं, और न ही उसपर आश्रित जीविका के साधन! सहरिया जंगलों से तेंदू पत्ते और गोंद, शहद जैसे उत्पाद बेच कर अपना पेट पालता था, पर अब सूखे की वज़ह से यह भी संभव नहीं रहा। अंततः यह समाज अब अपना गाँव, घर छोड़कर शहरों में पलायन करने और मज़दूरी करने के लिए मजबूर है। हर छोटी-बड़ी ज़रुरत के लिए झरेर के निवासियों को जंगलों से होकर 30 किमी. का सफर तय करके श्योपुर आना पड़ता है। सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओँ का ज़िक्र फाइलों में जिस भी तरीके से किया जाता हो पर सहरिया तक ना ही सरकार पहुँच पाई है, न ही उसकी योजनाएँ।

सहरिया की मुश्किलों भरी कहानी यहीं खत्म नहीं होती, गैर-आदिवासी अक्सर इन लोगों की ज़मीनों पर कब्जा कर लेते हैं, और प्रशासन ऐसे मामले सामने आने के बाद भी मूकदर्शक ही बना रहता है। जब कि कानून के मुताबिक किसी आदिवासी की ज़मीन किसी गैर-आदिवासी को नहीं ले सकता, पर यहाँ कैसा और कैसा न्याय। और विडंबना यह है कि सरकारें विकास पर्व मना रही हैं, काश! यह विकास पर्व जंगलों में बसा ये भारत भी मना पाता।

सहरिया के दर्द के लिए अकेले प्रकृति जिम्मेदार नहीं, शासन और प्रशासन सबसे बड़े गुनहगार हैं। सरकारी दावों की पोल खोलती सच्चाई ये बताती है कि सहरिया समाज आज भी समाज से उतना ही दूर है, जितना कि आज के युवाओं से रोज़गार। लोगों के पास गाँव में रोज़गार का कोई साधन नही, मनरेगा जैसी योजनाओं का तो लोगों को नाम तक नही मालूम। आज़ादी के इतने सालों बाद भी चंबल के यह गाँव अंधेरे में डूबे हुए हैं। लगभग 6000 की आबादी वाले ग्राम पंचायत झरेर में आज तक न बिजली है, न ही सड़क। स्वास्थ्य सेवाएं बिल्कुल नदारद हैं, यहां का लगभग हर दूसरा बच्चा गंभीर रूप से कुपोषण का शिकार है। सर्व शिक्षा अभियान जैसी योजनाओं की सफलता भले ही लुटियन दिल्ली में हर साल मनाई जाती हो, पर झरेर की तस्वीर कुछ और ही कहानी बयाँ करती है, गाँव में दस प्रतिशत से भी कम बच्चे स्कूल जाते हैं।

सूखे से पीड़ित इस गाँव के लोगों ने सरकार से उम्मीद छोड़ दी है। इन परिस्थितियों का जिम्मेदार भी ये अपने आप को ही मानने लगे हैं, और इस ज़िन्दगी को अपना भाग्य समझ बैठे हैं। सरकारें प्रचार-प्रसार पर जितना पैसा खर्च कर रही हैं, अगर ईमानदारी से उसी बजट में ऐसे गाँवों की तस्वीर और तकदीर बदलने की कोशिश हो तो शायद हिंदुस्तान का हर शख़्स गर्व से कहेगा, मेरा देश बदल रहा है, आगे बढ़ रहा है 
वैभव पटेल