Thursday 14 July 2016

Do Lafj : A Hindi Poetry Story







यूपी: अति पिछड़ा वोटर बनाएंगे सरकार, सरकार का क्या दायित्व!



यूपी: ति पिछड़ा वोटर बनाएंगे सरकार, सरकार का क्या दायित्व!

यूपी की सत्ता किसके हाथों में रहेगी, इसमें अति पिछड़ा वर्ग के वोटरों का खासा महत्व है। और शायद इस बात को राजनीतिक पार्टियों से बेहतर कोई और नहीं समझ सकता। वैसे तो राज्य में सभी राजनीतिक पार्टियों का अपना वोटबैंक है। लेकिन इस परंपरागत वोट बैंक के साथ जिस पार्टी की ओर अति पिछड़ा का झुकाव होता है, उसका पलड़ा भारी हो जाता है। जातियों और उपजातियों के प्रदेश में करीब 33 प्रतिशत अति पिछड़े वर्ग के वोटर हैं। यही मतदाता हैं जो प्रदेश की सरकार चुनने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। राज्य में बीजेपी, बीएसपी, एसपी, कांग्रेस व अन्य सभी राजनीतिक दलों को अच्छी तरह पता है कि पिछड़ों में अत्यन्त पिछड़े निषाद, मल्लाह, केवट, राजभर, कुम्हार, बिन्द, धीवर, कंहार, गोड़िया, मांझी आदि जातियों की निर्णायक संख्या हैं और इन जातियों का झुकाव जिस दल की ओर होता है सत्ता उसी की होती है।

बीजेपी का समीकरण - हिन्दुत्व, सवर्ण और अति पिछड़ा

राज्य में ब्राह्मण, कायक्थ और क्षत्रिय मिलाकर लगभग 20 फीसदीसवर्णमतदाता हैं। इनका एकबड़ा तबका बीजेपी और कुछ कांग्रेस के वोटर हैं। कुछ हिस्सा हिन्दुत्व की फिलॉस्फी से प्रभावित है। पर यह भी सत्य है कि इनमें लंबेसमय से कांग्रेसको जनसमर्थननहींमिल रहा है, जबकि इस वर्गकालगभग 12 से15 फीसदीहिस्साबीजेपी का वोट बैंक रहा है। अति पिछड़ा वर्ग के 33 फीसदी में से 10-12 फीसदी भी मिलें और हिन्दुत्व के मुद्दे पर भी अगर बीजेपी के पक्ष में 10-12 फीसदी वोटों का ध्रुवीकरण होता है, तो पार्टी के पक्ष में कुल करीब 32-35 फीसदी मतदान पार्टी के लिए बड़ी कामयाबी होगी। गौरतलब है कि बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य भीओबीसी सेआतेहैं। ऐसे में वह 33 फीसदी के साथ सबसे बड़े वोटर समूह में से यदि 10-12 फीसदी वोट दिलाने में सफल हुए तो बीजेपी के लिए प्रदेश में यह सुखद स्थिति होगी। और इस स्थिति पर कब्जा दूसरी पार्टी कर ले गई तो भाजपा के हाथ से यूपी खिसक सकती है।

बसपा का परंपरागत वोटबैंक

भाजपा के लिए मुश्किल इसलिए है क्योंकि बसपा शासन का लंबे समय तक बने रहना केवल पिछड़ा वर्ग का साथ होना ही एकमात्र कारण था। उत्तर प्रदेश में करीब 24प्रतिशत दलित हैं,जिनमें से18-20फीसदी मतदाताओं पर पार्टी का प्रभाव रहा है18 फीसदीमुसलमानों में से एक तिहाई यानी6 फीसदी भी आ गये तो पार्टी का आंकड़ा 24 फीसद तक पहुंचता है।33 प्रतिशत अति पिछड़ा मेंसे यदि 10-12 फीसदी पार्टी के पक्ष में जाते हैं तो बीएसपी 35प्रतिशत का आंकड़ा पार करजाएगी। इस बात को अच्छी तरह समझते हुएबीएसपी प्रमुख मायावती लगातार दलिोंकेसाथ अति पिछड़ाके कल्याण की बात कर रही हैं। बीएसपी दलित-अति पिछड़ा रैलियों का आयोजन भी कर रही है।

सत्ता में बरकरार रहने के लिएअति पिछड़ा की सपा को खास ज़रूरत

यूपी चुनाव में अल्पसंख्यकों के साथ-साथ समाजवादी पार्टी कोओबीसी और अति पिछड़ा की भी ज़रुरतहै। सीधे शब्दों में कहें तो समाजवादीपार्टी अपनी जीत का आधारही पिछड़ा वर्ग पर समीकरण को सेट करना मान रही है। पार्टी के लिए यादवों का खास महत्व है।54 प्रतिशत वोटर पिछड़े वर्ग से हैं। सपा के रणनीतिकारों की मानें तो 18 प्रतिशत मुसलमानों में से आधे से ज़्यादा सपा समर्थक है। अगर सरकार की नीतियों से जनता संतुष्ट है तो सपा अच्छी खासी स्थिति में हो सकती है। युवा सीएम अखिलेश यादव उम्मीदों के मुताबिक कुछ चमत्कारिक कर पाने में विफल रहे हैं, लेकिन पार्टी का कहना है कि अखिलेश ने बेहतरीन काम किया है और प्रदेश की जनता अब भी उनपर भरोसा करती है।

कांग्रेस के क्या हाल

वहीं, कांग्रेस अपने वोट बैंक से दूर खड़ी नज़र आती है, हालांकि कांग्रेस का वोटर बेस सभी जातियों में बंटा हुआ रहा है। धर्मनिरपेक्षता और असहिष्णुता जैसे मुद्दे उठाकर बीजेपी विरोध में सभी जन समुदाय के मतदाताओं के एक तबके को वह अपनी ओर आकर्षित करती है। बिहार में महागठबंधन की सफलता को देखकर प्रशांत किशोर कीसेवा लेनेकेबाद कांग्रेस की रणनीति भी उपेक्षितजातीय तबकोंऔर छोटी पार्टियों को अपने साथ जोड़ने की है। ऐसेमेंकांग्रेस भीअति पिछड़ा वोटरों को अपने साथ लाने की पूरी कोशिश में है।
एक कड़वे सत्य से रू-ब-रू हों तो सरकारें बदलती हैं, पार्टियां बदलती हैं, सबका समय बदलता है बस कुछ नहीं बदलता तो इन पिछड़ी जातियों का पिछड़ापन। जैसे कोई चुनाव करीब आता है सबको अचानक याद आता है, प्रदेश में कितनी जातियां और जनजातियां हैं? उनके लिए केन्द्र और राज्य से क्या-क्या योजनाएं हैं? किसको कितना फीसदी तक आरक्षण है? और किसको आरक्षण दिया जा सकता है और भी बहुत सारे सवाल चुनाव से 4-6 महीने पहले उठने शुरू होते हैं फिर वो धीरे से एक बड़ी राजनीतिक बहस का मुद्दा बन जाते हैं। जिसके लिए बहस हो रही है उसे भी पता नहीं होता कौन उसके पक्ष में बोल रहा है कौन उसके खिलाफ़। मतदान संपन्न होते-होते सारा हंगामा भी संपन्न हो जाता है। अगले साल यूपी में चुनाव होने हैं तो सारी राजनीतिक पार्टियां अपना गणित बैठाने में जुट गई हैं। सारी बहस होती है मगर कोई भी कभी यह सवाल नहीं करता कि आपने इस जाति विशेष के नाम पर चुनाव लड़ा था, सत्ता में रहकर उसके लिए क्या कर दिया। पिछले चुनावों में जो पिछड़े थे वो आज अति पिछड़ों में शामिल होने की कगार पर हैं, उनकी फ़िक्र नहीं करता कोई। समय की मांग है कि सरकार नए तरीके से अति पिछड़ों को चिन्हित कर, उनकी परिस्थिति का सही आकलन कर कुछ विशेष योजनाएं बनाएं। और मौज़ूदा योजनाओं सहित सभी योजनाओं को सही और पारदर्शी तरीके से लागू करवाए।
कमलेश तिवारी

सरकार और समाज से दूर सूखा सहरिया समाज



सरकार और समाज से दूर सूखा सहरिया समाज

राजस्थान की सीमा से लगे, मध्यप्रदेश श्योपुर जिले में झरेर गाँव है, जहाँ सहरिया आदिवासी समाज रहता है। लगभग 50 कि.मी. में फैले चंबल के जंगलों में एक ऐसा भारत बसता है, जहाँ न पीने को पानी है, न खाने को अन्न और इस भारत का बाशिंदा है सहरिया समाज। तीन साल से यहाँ बारिश नहीं हुई है, फलस्वरुप न ही कोई खेती। ज़मीन सूख कर चट्टान हो गई है, तो बादलों के इंतजार में लोगों की आँखें भी पथरा गई हैं।

 गांव का जलस्तर 400 फीट से नीचे चला गया है, नलों से पानी आना बंद है। लोग पानी की बूंद-बूंद को मोहताज़ हैं। अक्सर टैंकर से पानी भरने के समय आपस में लड़ जाते हैं। और कभी-कभी लड़ाई इतनी बढ जाती है कि जान तक चली जाती है। जो नल चल भी रहें हैं, तो आलम यह है कि एक घंटे में चार लोगों की कड़ी मशक्क़त बाद 5 लीटर पानी भर पाना भी मुश्किल है। जानवरों को पिलाने के लिए पानी का कोई स्रोत्र नहीं है। झरेर निवासी रामवचन बताते हैं कि पिछले तीन सालों में तकरीबन 600 गायें भूख-प्यास से दम तोड चुकी हैं। बकरी जैसे छोटे मवेशियों की अनगिनत मौते हो चुकी हैं।

   जंगल में अब न ही पेड़ बचे हैं, और न ही उसपर आश्रित जीविका के साधन! सहरिया जंगलों से तेंदू पत्ते और गोंद, शहद जैसे उत्पाद बेच कर अपना पेट पालता था, पर अब सूखे की वज़ह से यह भी संभव नहीं रहा। अंततः यह समाज अब अपना गाँव, घर छोड़कर शहरों में पलायन करने और मज़दूरी करने के लिए मजबूर है। हर छोटी-बड़ी ज़रुरत के लिए झरेर के निवासियों को जंगलों से होकर 30 किमी. का सफर तय करके श्योपुर आना पड़ता है। सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओँ का ज़िक्र फाइलों में जिस भी तरीके से किया जाता हो पर सहरिया तक ना ही सरकार पहुँच पाई है, न ही उसकी योजनाएँ।

सहरिया की मुश्किलों भरी कहानी यहीं खत्म नहीं होती, गैर-आदिवासी अक्सर इन लोगों की ज़मीनों पर कब्जा कर लेते हैं, और प्रशासन ऐसे मामले सामने आने के बाद भी मूकदर्शक ही बना रहता है। जब कि कानून के मुताबिक किसी आदिवासी की ज़मीन किसी गैर-आदिवासी को नहीं ले सकता, पर यहाँ कैसा और कैसा न्याय। और विडंबना यह है कि सरकारें विकास पर्व मना रही हैं, काश! यह विकास पर्व जंगलों में बसा ये भारत भी मना पाता।

सहरिया के दर्द के लिए अकेले प्रकृति जिम्मेदार नहीं, शासन और प्रशासन सबसे बड़े गुनहगार हैं। सरकारी दावों की पोल खोलती सच्चाई ये बताती है कि सहरिया समाज आज भी समाज से उतना ही दूर है, जितना कि आज के युवाओं से रोज़गार। लोगों के पास गाँव में रोज़गार का कोई साधन नही, मनरेगा जैसी योजनाओं का तो लोगों को नाम तक नही मालूम। आज़ादी के इतने सालों बाद भी चंबल के यह गाँव अंधेरे में डूबे हुए हैं। लगभग 6000 की आबादी वाले ग्राम पंचायत झरेर में आज तक न बिजली है, न ही सड़क। स्वास्थ्य सेवाएं बिल्कुल नदारद हैं, यहां का लगभग हर दूसरा बच्चा गंभीर रूप से कुपोषण का शिकार है। सर्व शिक्षा अभियान जैसी योजनाओं की सफलता भले ही लुटियन दिल्ली में हर साल मनाई जाती हो, पर झरेर की तस्वीर कुछ और ही कहानी बयाँ करती है, गाँव में दस प्रतिशत से भी कम बच्चे स्कूल जाते हैं।

सूखे से पीड़ित इस गाँव के लोगों ने सरकार से उम्मीद छोड़ दी है। इन परिस्थितियों का जिम्मेदार भी ये अपने आप को ही मानने लगे हैं, और इस ज़िन्दगी को अपना भाग्य समझ बैठे हैं। सरकारें प्रचार-प्रसार पर जितना पैसा खर्च कर रही हैं, अगर ईमानदारी से उसी बजट में ऐसे गाँवों की तस्वीर और तकदीर बदलने की कोशिश हो तो शायद हिंदुस्तान का हर शख़्स गर्व से कहेगा, मेरा देश बदल रहा है, आगे बढ़ रहा है 
वैभव पटेल

Wednesday 29 June 2016

एनएसजी (NSG) : विफलता कम, जल्दबाजी ज्यादा

एनएसजी (NSG) : विफलता कम, जल्दबाजी ज्यादा

अब इसे कूटनीतिक विफलता कहें या कमजोर तैयारी, भारत फिलहाल न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुपयानी एनएसजी में शामिल नहीं हो पाया. इसको लेकर जहां अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत को करारा झटका लगा, तय है कि संसद का मानसून सत्र इसकी भेंट चढ़ेगा. कितना चढ़ेगा, यह वक्त बताएगा.

आगे किस पर कितना भरोसा करना सही होगा, यह विमर्श का विषय है. फिलहाल इस मुद्दे पर चुप रहकर, जमीनी तैयारी करना ही बेहतर होगा. एनएसजी के उद्देश्य और जरूरतें ही काफी कुछ साफ कर देते हैं, तब भी भारत ने जल्दबाजी की, नतीजा सामने है. लेकिन महत्वपूर्ण यह भी कि भारत ने एनएसजी की सदस्यता के लिए अपनी ओर से पहल नहीं की थी. बल्कि कहें कि अमरीका ने उकसाया और साथ देने का भरोसा जताया.

सबको पता है कि अमरीका, व्यापारी है. वह एक सीमा तक साथ देगा, उससे ज्यादा नहीं. जहां तक भारत के लिए समर्थन का सवाल है, वे देश समर्थन करेंगे जिनको इस बात की संभावना दिखेगी कि भारत उनके परमाणु संयंत्रों की बिक्री का, कितना बड़ा बाजार बनेगा.कहने की जरूरत नहीं कि किसका, कितना हित जुड़ा है और कौन कितना साथ देगा. दो बातें विशेष महत्व की हैं. पहली यह कि इसकी पहल 1974 में तब हुई, जब भारत ने पोखरन में पहला परमाणु परीक्षण किया था और दूसरी यह कि एनएसजी उन देशों का समूह है जो परमाणु अप्रसार संधि यानी एनपीटी पर हस्ताक्षर करते ही, अपने आप सदस्य मान लिया जाता है.

जाहिर है, एनएसजी के गठन की तात्कालिक जरूरत, भारत का पर कतरना था. अब जबकि सारा कुछ एक क्लिक पर उपलब्ध है, एनएसजी की वेबसाइट से ज्ञात दिशा निर्देश काफी कुछ साफ कर देते हैं जो परमाणु अप्रसार की विभिन्न संधियों के अनुकूल हैं.

इनमें परमाणु अप्रसार संधि, साउथ पैसिफिक न्यूक्लियिर फ्री जोन ट्रीटी, पलिंदाबा समझौता यानी अफ्रीकन न्यूक्लियर वीपन फ्री जोन ट्रीटी, ट्रीटी फॉर द प्रोहिबिशन ऑफ न्यूक्लियर वीपंस इन लैटिन अमेरिका, बैंकॉक समझौता यानी ट्रीटी ऑन द साउथ-ईस्ट एशिया न्यूक्लियर वेपन फी जोन तथा सेमिपैलेटिंस्क समझौता अर्थात द सेंट्रल एशियन न्यूक्लियर वीपन फी जोन ट्रीटी शामिल हैं.

इस समूह में 48 देश शामिल हैं तथा 1994 में स्वीकारे गए दिशा निर्देशों के अनुसार कोई भी सप्लायर उसी समय, ऐसे उपकरणों के हस्तांतरण की स्वीकृति दे सकेगा, जब वो पूर्ण संतुष्ट हो जाए कि ऐसा करने पर परमाणु हथियारों का प्रसार नहीं होगा.

लेकिन इन दिशा निर्देशों का क्रियान्वयन हर सदस्य देश, अपने राष्ट्रीय कानून और वहां की कार्यप्रणाली के मुताबिक ही करेगा. इस समूह में सर्वसम्मत फैसला होता है जो इसकी कार्य योजना बैठकों में लिए जाते हैं, जो हर वर्ष होती है.

इस बार 24 जून को सोल में विशेष सत्र बुलाया गया. उसके पहले 23 जून को ताशकंद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मुलाकात के बाद ही यह साफ हो गया था कि चीन रोड़ा बनेगा. माहौल, पहले ही दिखने लगा कि चीन अड़ंगा लगाएगा. चीन ने भारत का कब साथ दिया? ऐसे में हमें चीनी राष्ट्रपति के समक्ष दावे पर विचार करने की बात कहने से बचना था.

जगजाहिर है कि चीन, पाकिस्तान को भी इस समूह का सदस्य बनाए जाने का पक्षधर है. जब भारत, चीन के नेतृत्व वाले संगठन, ‘शंघाई सहयोग परिषदकी सदस्यता ले रहा था, तब भी एनएसजी में भारत के प्रवेश पर अड़ंगा चीन ने ही लगाया था. भविष्य में यह सब ध्यान में रखना होगा.

भारत के नजरिए पर भी ध्यान देना होगा. भारत ने शुरू से ही परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए, क्योंकि उसका मानना है कि ऐसा करने से अपने परमाणु हथियारों से हाथ धोना पड़ेगा. अपवाद स्वरूप 2008 में भारत-अमरीका परमाणु समझौता, तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश की निजी कोशिशों की परिणिति थी तथा उन्होंने ही सदस्य देशों को इसके लिए राजी किया था.

अब दूसरी बार ऐसा ही करने का मतलब यह हुआ कि इस संगठन के मूल स्वरूप को ही बदलना है. भारत की इस बात में भले ही दम हो कि बिना एनपीटी पर हस्ताक्षर किए, वो परमाणु कार्यक्रम अप्रसार की हर कसौटी पर खरा उतरा है. लेकिन इसके लिए एनएसजी का स्वरूप बदलना कितना उचित होगा, वह भी तब, जब चीन इस पर हस्ताक्षर के बावजूद, कई मौकों पर धड़ल्ले से शर्तो को धता बताता आया है.
जगजाहिर है कि पाकिस्तान व उत्तर कोरिया के परमाणु हथियारों के पीछे प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से चीन ही होता है. इतना सबके बावजूद इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि अधिकांश देश भारत के समर्थन में खुलकर आए थे. उसमें भी अमरीका, ब्रिटेन और फ्रांस जैसे मजबूत देशों का शामिल होना बताता है कि विश्व समुदाय में भारत की हैसियत काफी सम्मानजनक है.

लेकिन इस बात का मलाल जरूर है कि सही ढंग से परिस्थितियों का आकलन पहले ही किया गया होता तो इस बड़ी किरकिरी से बचा जा सकता था. हां, जरूरत इस बात की है कि भारत को विश्व समुदाय के किसी भी समूह में शामिल होने के लिए ऐसी जल्दबाजी आगे नहीं दिखानी चाहिए.

नि:संदेह भारत को विश्व समुदाय में तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था के रूप में देखा जा रहा है, जिससे दबाव और सम्मान के साथ छवि भी बदली है. जरूरत इस बात की है कि भविष्य में कोई भी कदम बजाय जल्दबाजी के, काफी सोच-विचार कर, रणनीति अपनाकर, अनुकूल समय पर उठाया जाए.

-राहुल खंड़ालकर

योग की कक्षा -एक बार फ़िर

योग की कक्षा -एक बार फ़िर

भारत मे दूसरे अंतर्राष्टीय योग दिवस का आयोजन 21 जून को चंडीगढ़ के कैपिटल कॉंप्लेक्स में किया गया। जिसमे प्रधानमंत्री मोदी जी ने भाग लिया। दरअसल विगत वर्ष संयुक्त राष्ट्र ने नरेंद्र मोदी की पहल पर 21 जून को योग दिवस के रूप में घोषित किया था। 

               
इस वर्ष भारत समेत विश्व के 192 देशों ने योग दिवस मनाया। यमन मे गॄह युध्द के कारण योग दिवस ना मनाया जा सका। अंतर्राष्टीय योग दिवस के मौके पर नरेंद्र मोदी द्वारा एक अभिभाषण मे कहा गया कि 'पूरे विश्व का योग को लेकर देश को पूरा समर्थन मिला इसलिए देश मे भी योग पर राजनीति छोड़ सबको एक साथ आगे बढ़ना चाहिए। योग का शारीरिक मानसिक और आत्मा से सम्बन्ध है इसलिए हमें अपने पूर्वजों की इस विरासत को आगे बढाना चाहिए।' 21 जून को मनाए गए इस योग दिवस पर लगभग 30 हज़ार लोगों ने एक साथ योग किया। 

                
दूसरे योग दिवस का उत्साह सरकारी कार्यालयों से लेकर निजी संस्थानों तक मे देखा गया है फ़िर चाहे वह पी डब्लू डी कार्यालय हो या कोई व्यापारिक संस्थान, सभी जगह इसकी उत्सुकता देखने को मिली। इतना ही नहीं देश के कई राज्यों मे मानसूनी बारिश भी योग दिवस के उत्सव को धो नही पाई।

            
वहीं यदि हम विरोध की बात करें तो यह कोई पहली बार नहीं है कि जब सरकार द्वारा कोई पहल की गई हो और उसमे विपक्ष ने कोई आना-कानी ना की हो। यदि सीधे शब्दों मे कहें तो भारत मे किसी भी सरकार मे विपक्ष का विरोध करना एक परम्परा सा बन गया है।विगत वर्ष मनाए गये योग दिवस पर विपक्ष का गुस्सा और आपत्तिजनक व्यवहार देखने को मिला था, उसी प्रकार इस बार भी वही बहिष्कार देखने को मिला। भारत को संस्कृतियों और धर्मों के संगम का देश कहा जाता है परंतु देश मे किसी कार्यक्रम को लेकर राजनीति ना हो ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है। गत वर्ष कुछ मुस्लिम कट्टर वादियों द्वारा योग करने को धर्म के विरुद्ध बताया गया था अपितु ऐसा नही है। मुस्लिम समाज मे अदा की जा रही पाँच वक्त की नमाज़ भी कुछ इस तरह से अदा की जाती है कि उसे हम योग की श्रेणी मे रख सकते है। यही कारण है कि इस बार विश्व के कई मुस्लिम राष्ट्रों ने भी इसमें अपनी भागेदारी निभाई ।

              
यह बेहद शर्मनाक बात है कि चंडीगढ़ मे योग दिवस के मौके पर विपक्ष का इसे लेकर बहिष्कार किया गया और साथ ही काले झंडे दिखाये गये। इस विरोध के पीछे राजनीति यह की जा रही थी कि मोदी द्वारा किया गया यह कार्यक्रम केवल एक ढोंग है, एक दिखावा है। गौरतलब है कि पंजाब मे जल्द ही विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। हालाँकि यह सच है कि योग कोई मोदी द्वारा जनता को दी गई देन नहीं, यह तो कालांतर से समाज मे प्रचलित है परंतु विगत कुछ वर्षों से लोग इसके लाभ को भूलते जा रहे है जिसके कारण प्रधानमंत्री द्वारा संयुक्त राष्ट्र के सामने इसे मनाने का एक प्रस्ताव रखा गया जिसे मान्य कर दिया गया। क्योंकि योग से आत्मा का परमात्मा से मिलन कहा गया है और कहा भी जाता हैं कि 'प्रथमहि सुख निरोगी काया' अर्थात आप निरोगी हैं तो यह आपके लिए संसार का सबसे बड़ा सुख है। विदेश मंत्रालय के अनुसार, इस बार अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर लोगों का जमावड़ा पिछले वर्ष की तुलना मे दोगुना था।

-रेहान अहमद