सरकार और समाज से दूर सूखा सहरिया
समाज
राजस्थान की सीमा से लगे, मध्यप्रदेश श्योपुर जिले में झरेर गाँव है, जहाँ सहरिया
आदिवासी समाज रहता है। लगभग 50 कि.मी. में फैले चंबल के जंगलों में एक ऐसा भारत बसता
है, जहाँ न पीने को पानी है, न खाने को अन्न और इस भारत का बाशिंदा है सहरिया समाज।
तीन साल से यहाँ बारिश नहीं हुई है, फलस्वरुप न ही कोई खेती। ज़मीन सूख कर चट्टान हो गई है, तो
बादलों के इंतजार में लोगों की आँखें भी पथरा गई हैं।
गांव का जलस्तर 400 फीट से नीचे चला
गया है, नलों से पानी आना बंद है। लोग पानी की बूंद-बूंद को मोहताज़ हैं। अक्सर टैंकर
से पानी भरने के समय आपस में लड़ जाते हैं। और कभी-कभी लड़ाई इतनी बढ जाती है कि जान
तक चली जाती है। जो नल चल भी रहें हैं, तो आलम यह है कि एक घंटे में चार लोगों की कड़ी
मशक्क़त बाद 5 लीटर पानी भर पाना भी मुश्किल है। जानवरों को पिलाने के लिए पानी का कोई स्रोत्र नहीं है। झरेर निवासी रामवचन
बताते हैं कि पिछले तीन सालों में तकरीबन 600 गायें भूख-प्यास से दम तोड चुकी हैं।
बकरी जैसे छोटे मवेशियों की अनगिनत मौते हो चुकी हैं।
जंगल में अब न ही पेड़ बचे हैं, और न
ही उसपर आश्रित जीविका के साधन! सहरिया जंगलों
से तेंदू पत्ते और गोंद, शहद जैसे उत्पाद बेच कर अपना पेट पालता था, पर अब सूखे की
वज़ह से यह भी संभव नहीं रहा। अंततः यह समाज अब अपना गाँव, घर छोड़कर शहरों में पलायन
करने और मज़दूरी करने के लिए मजबूर है। हर छोटी-बड़ी ज़रुरत के लिए झरेर के निवासियों
को जंगलों से होकर 30 किमी. का सफर तय करके श्योपुर आना पड़ता है। सरकार की जनकल्याणकारी
योजनाओँ का ज़िक्र फाइलों में जिस भी तरीके से किया जाता हो पर सहरिया तक ना ही सरकार
पहुँच पाई है, न ही उसकी योजनाएँ।
सहरिया की मुश्किलों भरी कहानी यहीं खत्म नहीं होती, गैर-आदिवासी अक्सर इन
लोगों की ज़मीनों पर कब्जा कर लेते हैं, और प्रशासन ऐसे मामले सामने आने के बाद भी मूकदर्शक ही बना
रहता है। जब कि कानून के मुताबिक किसी आदिवासी की ज़मीन किसी गैर-आदिवासी को नहीं ले सकता,
पर यहाँ कैसा और कैसा न्याय। और विडंबना यह है कि सरकारें विकास पर्व मना रही हैं,
काश! यह विकास पर्व जंगलों में बसा ये “भारत” भी मना पाता।
सहरिया के दर्द के लिए अकेले प्रकृति जिम्मेदार नहीं, शासन और प्रशासन सबसे
बड़े गुनहगार हैं। सरकारी दावों की पोल खोलती सच्चाई ये बताती है कि सहरिया समाज आज
भी “समाज” से उतना ही दूर
है, जितना कि आज के युवाओं से रोज़गार। लोगों के पास गाँव में रोज़गार का कोई साधन
नही, मनरेगा जैसी योजनाओं का तो लोगों को नाम तक नही मालूम। आज़ादी के इतने सालों बाद
भी चंबल के यह गाँव अंधेरे में डूबे हुए हैं। लगभग 6000 की आबादी वाले ग्राम पंचायत
झरेर में आज तक न बिजली है, न ही सड़क। स्वास्थ्य सेवाएं बिल्कुल नदारद हैं, यहां का
लगभग हर दूसरा बच्चा गंभीर रूप से कुपोषण का शिकार है। सर्व शिक्षा अभियान जैसी योजनाओं
की सफलता भले ही लुटियन दिल्ली में हर साल मनाई जाती हो, पर झरेर की तस्वीर कुछ और
ही कहानी बयाँ करती है, गाँव में दस प्रतिशत से भी कम बच्चे स्कूल जाते हैं।
सूखे से पीड़ित इस गाँव के लोगों ने सरकार से उम्मीद छोड़ दी है। इन परिस्थितियों
का जिम्मेदार भी ये अपने आप को ही मानने लगे हैं, और इस ज़िन्दगी को अपना भाग्य
समझ बैठे हैं। सरकारें प्रचार-प्रसार पर जितना पैसा खर्च कर रही हैं, अगर ईमानदारी
से उसी बजट में ऐसे गाँवों की तस्वीर और तकदीर बदलने की कोशिश हो तो शायद
हिंदुस्तान का हर शख़्स गर्व से कहेगा, “मेरा देश बदल रहा है, आगे बढ़ रहा है”।
वैभव पटेल
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