प्रजातंत्र में भटकता तंत्र !!!!!!!!
वयवस्था की सबसे बड़ी व्यथा है कि वह व्यस्थापित नहीं हो पाती | एक तरफ जहां हर
ओर शोर शराबो के बिच जनहित से जुड़े मुद्दों को कही ठंढे बक्से में समेट दिया जाता
है तो वहीँ दूसरी ओर मुद्दों का
राजनीतीकरण कर उसकी महत्ता को भंग करने में कोई कसर नहीं छोड़ी| पर विश्व के सबसे
बड़े प्रजातंत्र में जहां प्रजा और तंत्र के बिच समावर्ती मेल मिलाप की परिकल्पना
की जानी चाहिए वहा ना तो कोई तंत्र है और ना प्रजा !! इन सब के बिच अगर हम किसी को
ज़िम्मेदार करार दे तो वो भी खुद प्रजा ही है| बात लगभग दो साल पहले की है जब देश
की आबो हवा में एक नाम को सरकार के तौर पर या यूं कहे भारत का भाग्य विधाता के
तर्ज पर रखा गया तब ही किसी को सोचना चाहिए था की आखिर एक इंसान की बदौलत इतना बड़ा
तंत्र कैसे चलेगा ?? किसी को पूछना चाहिए
था कि आखिर वो कौन सा मॉडल है जिससे देश के काया कल्प होने की संभावनाएं थी | खैर
ऐसा वादा पहली बार किसी पार्टी या गटबंधन ने नहीं किया पर इस बार की बात हर बार के
धोखों को पाटने जैसी लगी थी तभी तो कही जा कर महाराष्ट्र,हरयाणा,झारखण्ड के साथ
साथ जम्मू कश्मीर जैसी जगहों पर भी परचम लहरा गया | ना विचारधारा की परवाह ना मान
मरियादाओं का सम्मान भूख बस सत्ता की नर्म कुर्सियों पर जमने जमाने की है चाहे वो
पि.डी.पि जैसी क्षेत्रीय पार्टियों के साथ
गटबंधन कर खुद पे साम्प्रदायिक होने का धब्बा कायम करना हो या बिहार में जंगल राज
और विकाश पुरुष का साथ आना ये सब राजनीती के बदलते सुर है | देश में अब संसद का
मतलब है राजनितिक अखाडा जहा हर सदस्य अपने प्रतिद्वंदी को किसी तरह परस्त कर ये
दिखा दे की उसकी सरकार ने एक अंतराल में भारत के इतिहास ही बदल दिया है| बीते दो
सत्रों में जिस तरह से सरकार और उसका रवैया रहा उस तरह से तो शायद ही भविष्यदृष्टा
कही जाने वाली सरकार देश के भविष्य को सवार सकेगी | हाल फिहाल के दिनों में
योजनाओं की भरमार के साथ साथ जिस तरह से धार्मिक असमानता को हवा मिली हैं शायद वो
सत्ता दल के सम्प्रदिक होने का परीमाण सिद्ध करती हो | अब चाहे वो जाट आन्दोलन हो
या राम मंदिर बनाम बाबरी मस्जिद का हो या माता कही जाने वाली गाय पर जम कर एक
दूसरे की कौमों पर पानी पि-पि कर कोसना हो
, हर तरफ तंत्र का खुल्ला मजाक उड़ाया जा रहा है | ऐसे परिवेश में आखिर जनता सवाल
पूछे तो किससे ?? विश्वास करे तो किसकी मंशा पर करे वरना हरयाणा के जाटो की तरह
घोषणा पत्र में आश्वासन दे कर दंगाइयों को न्योता देने का जोखीम भी इसी जनता को
उठाना पड़ेगा!!
बात स्पष्ट है की अगर सरकार को बीते कुछ दिनों पर मरहम पट्टी लगनी है तो कम से
कम अब साथ मिल कर एक दुसरे की बात समझ कर बिना किसी राजनीतिक फ़ायदे के जनहित
मुद्दों को लागू करे नहीं तो प्रजातंत्र की येही ताकत जिसने उसे अर्श से फर्श तक
पहुचाया उसकी दावेदारी अगले चुनाव तक मिटटी में मिला देगी |जिस तरह से हर माहौल को
राजनीती से जोड़ कर आपस में लड़ने का सामन बना लिया जाता है उससे नुकसान सत्ता पक्ष
का भी है और विपक्ष का भी..अलबत्ता ये बात अलग है कि जवाबदेही में सत्ता पक्ष को
खड़ा होना होता है पर विपक्ष का ये दायित्व होता है कि अपनी मर्यादा कायम रखते हुए
सरकार को काम करने दे |बीते दिनों संस्थाओ का बड़ा जोर शोर से राजनितिक लिपा पोती
की गयी किसी को कांग्रेसियों का गढ़ बताया गया किसी को वाम दलों का अड्डा...
और इन्ही सब के बिच देशद्रोह,रास्त्रविरोधी जैसे आरोप भी लगे ...सत्यता का पता
मुझे भी नहीं है पर हां कही ना कही ये भी सही है की विचारो की अभिव्यक्ति की आजादी
का दुरपयोग भी किया गया है कही भारत विरोधी नारे लगे तो कोई दल उन्हें समजने या
पूछने नहीं गया की आखिर ये सब कैसे हुआ ??? या ये पूछने की कोशिश नहीं की कि आखिर
जिस संस्थान में ऐसी परिस्थिति बने गयी उसका ज़िम्मेदार कौन है ?? बल्कि इन सब से
इतर हर बात को दंगो से या पकिस्तान से जोड़ कर जितना हो सके उसे कम्युनल बना देने
की होड़ मची है |
गाँधी हो या पटेल या फिर किसी भी विचारधारा के समर्थक या फिर किसी धर्म के
अनुयायी हर विचार और धर्म आपस का समझौता सिखाता है ना की आन्दोलन और दंगो में जाला
कर शहर के शहर बर्बाद कर दे !! कोई उनका दर्द भी जा कर सुने की कूटनीति के खेल में
जिस तरह से सरहदे बेबस हो जाती है बच्चे अनाथ हो कर बदला लेने की मानसिकता को
बढ़ाते है शायद ये प्रजा तंत्र का आयाम नहीं है
Sanjeev
singh…
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