मेरा देश
सुबह
की मीठी नींद जब खुलती है,
खिड़की पर टंगे पर्दो के बीच
मे से गुज़रती सूरज की किरने
मेरे चहरे पर पड़ती है,
दिन की व पहली मुस्कुराहट
जताती है,
हाँ, ये मेरा देश है।
राजस्थान केरेगिस्तानों मे
रेंगता हुआ वो एक फकीर,
बिना दरिया के अपने किनारे को
तलाशता हुआ, चलता है
फिर गिरता संभलता है,
मानो ये मेरा दिल कहता है,
हाँ, ये मेरा देश है।
न मिट्टी के मोह का, वो चंद मिट्टी का
कही दूर दरिया मे खड़ा, एक पुरुष
जब देश की हर कन्या और कुमारी
की ओर नज़र उठाकर देखता है, फिर देखना सिखाता है
दिल मे तब ये आवाज़ गूँजती है,
हाँ, ये मेरा देश है।
वहीं कही दूर, कश्मीर की वादियों मे-
कली सा खिलता वो एक मुखड़ा
जब हँसता है,
वो वक़्त जब जन्नत खुद ये ज़मीन
बन जाती है,
मानो ये मेरा दिल कहता है,
हाँ, ये मेरा देश है।
इन्ही चहल-पहल से कहीं दूर अरुणाचल,
जब सूरज की पहली किरणों के
मासूम कदमो से जगमगा उठता है,
मानो ये दिल कहता है,
हाँ, ये मेरा देश है।
कहीं गरम कही ठंड, ऐसी ही तोड़ती मरोड़ती
शिलाखंड
जब अमृत सी मीठी ये भागीरथी,
मेरे होठों को चूम कर, उनमे मिठास भर जाती है।
मानो तब तब ये दिल कहता है,
हाँ, ये मेरा देश है।
कहने को हम बोहत कुछ कहे चुके,
पर अब भी कुछ शेष है।
क्यूंकी ये सिर्फ एक ज़मीन
नहीं,
उसपर रहने वालों का भी देश
है।
हाँ, ये मेरा देश है।
- इन्द्रनील नन्दी
No comments:
Post a Comment