रोज़ सुबह आ कर बड़े ही मन से ईंटों को संजोने लग जाता है, जैसे खुद का आशियाना सजा रहा हो | लेकिन वो इतना खुशकिस्मत कहा की उसे भी कोई पक्की छत मिल सके | लगातार ईंट पर ईंट रखता तो है, लेकिन आँखों में एक आस लिए की एक दिन मैं भी बनाऊंगा अपना खुद का घर, जहाँ सारा परिवार बसेगा खुशियों के साथ । ख़ुशी जब बच्चा स्कूल से खुद के घर लौटेगा, ख़ुशी जब बेटी खुद के घर से ही विदा होगी, ख़ुशी जब पूरा दिन मजदूरी के बाद खुद के घर में सुस्ता सकेगा, और ख़ुशी जब अर्थी भी निकलेगी तो
खुद के घर से ही |
आँखों में सपने बुन ही रहा होता है की उसकी औरत का चेहरा
सामने आ जाता है जो की पेट से है| डॉक्टर बाबू
ने कहा था यह करना, वो करना, ऐसा मत करना- वैसा मत करना, लेकिन कौन
जाने की सूरज की चिलचिलाती धूप
में सर पर मिटटी चुने का बोझा लिए, चेहरे
पर आई पसीने की बुँदे, डॉक्टर बाबू
की किसी बात को कहाँ ठहरने देती है| गढ़ा-गढ़ाकर तपती ज़मीन पर नंगे पांव कदम
बढ़ा रही है कि पेट में पड़े राजा बाबू
को कहीं चोट न लग जाये|
इधर वो (उसका आदमी )मज़बूरी से पड़ी चिंता कि बलवतो को,
मुस्कान के बादलो में छुपा कर उसे बनाने
कि कोशिश तो करता है, लेकिन किसे पता कि टूट तो वो खुद ही गया था उस दिन, जब गर्भ के अगले दिन
ही उसकी औरत मलबे कि खाक छानने उसके पीछे - पीछे चल दी थी | मन तो उसका भी था कि बिठाकर
उसकी देखभाल करे, लेकिन देखभाल से पेट कहाँ भरता है, जो इसी कशमकश में बैठा सोच रहा होता है, तभी एक आवाज सुनाई दी, "बूढ़े
हाथो में दम नहीं है, तो रोज़ क्यों आ जाता है हराम,कि कमाई खाने?" शायद वो बूढ़ा कोई और नहीं, बल्कि इसका बाप है, तभी
तो गलियाँ वहां
पढ़ रही है और दिल बेचारे का यहाँ कचोट रहा है | शर्म और गुस्से का भाव सीधा -सीधा उसके
चेहरे पर नज़र आ रहा है, क्योंकि यह बुढा वही बाप है, जिसकी सेवा करने का सपना इसने
बचपन से ही देखा था, लेकिन पेट में लगी आग में, कब यह सेवा - भाव स्वः हो गया, किसी
को पता नहीं |
इसी बीच मन में एक बात ने करवट ली कि शाम कि रोटी तो आज थाली में प्याज़ के साथ सज जाएगी, लेकिन आज कि रात सर छिपाने के लिए छत कहाँ से आएगी ? छत पूरा दिन मेहनत करके सुस्ताने
के लिए, छत - पेट में बच्चा
लिए औरत कि सुरक्षा के लिए, छत - थकान में पड़े बूढ़े बाप की कुछ सेवा के लिए |
रोज़ नए नए घर बनाता है, जिसकी ईंटे, बाप मजदूरी के कंधो पर उठाकर लाता है और औरत बदकिस्मती की ठोकर खाते हुए सिर पर रखकर | इसके बाद कहीं जाकर आशियाना बनता है ....लेकिन उसका नहीं, किसी और का | अपना खून - पसीना , बाप का दर्द, और औरत की मज़बूरी, बच्चों का भविष्य सब डाल देता है इंटो के बीच, केवल इसलिए की कोई आएगा और सजा देगा खुशिओ से नए घर को | लेकिन गरीबी से मरे दिल के किसी अँधेरे कोने में, कभी कभी उसकी चाहत भी जग उठती है की "अपना भी एक आशियाना हो”
-राहुल खंडालकर
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