Tuesday, 1 March 2016

मेरे हिस्से की धूप

मेरे हिस्से की धूप

मेरे हिस्से की धूप kavita

मैं खुद के हिस्से की धूप मांगता हूँ
कुछ और नहीं बस पल दो चार मांगता हूँ
खूब जिया अब तलक साये में तेरे
अब बस खुद का दीदार करना चाहता हूँ
तेरे सपनों, ख़्वाहिशों के बोझ तले ढला
मेरे अरमानों का लगातार घोट गला
यह दुनिया भी ज़ालिम बंधन है
इस में मरता मेरा मासूम तन मन है
घुट घुट बहुत जी लिया मैंने
अब मैं भी आज़ाद फ़िज़ा चाहता हूँ
कुछ और नहीं
बस तुमसे मैं
खुद के हिस्से की धूप मांगता हूँ।

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